पोहरी और करैरा में अब बनेंगे नए समीकरण

कैसे बन पाएगा कांग्रेस से भाजपा आकर कार्यकर्ताओं का समन्वय
खेमराज मौर्य



khemraj morya
शिवपुरी। करैरा एवं पोहरी विधायकों के इस्तीफे स्वीकार होने की औपचारिकता शेष है और इन विधानसभा क्षेत्रों में छह माह के भीतर उपचुनाव होगा और अब दोनों ही विधानसभा क्षेत्रों में नए समीकरण बनेंगे, क्योंकि दोनों ही विधानसभा में पहले से ही निष्ठावान एवं समर्पित भाजपा कार्यकर्ता कैसे अब नए कांग्रेसियों को एडजस्ट कर सकेंगे। यह बहुत बड़ा सवाल है। दोनों विधायकों के इस्तीफे से जिले में कांग्रेस विधायकों की संख्या तीन से घटकर एक रह गई है। अब सिर्फ पिछोर के कांग्रेस विधायक केपी सिंह ही शेष बचे हैं जहां भाजपा से शिवपुरी विधानसभा क्षेत्र से यशोधरा राजे सिंधिया और कोलारस से वीरेन्द्र रघुवंशी विधायक हैं।
पोहरी विधानसभा क्षेत्र में सुरेश राठखेड़ा भले ही उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में उतरें, लेकिन उनके समक्ष समस्याएं कम नहीं हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में सुरेश राठखेड़ा ने बसपा उम्मीद्वार कैलाश कुशवाह को 8 हजार से अधिक मतों से पराजित किया था जबकि दो बार विधायक रहे भाजपा उम्मीद्वार प्रहलाद भारती तीसरे स्थान पर रहे थे। इस विधानसभा क्षेत्र में धाकड़ मतदाताओं की संख्या लगभग 35 हजार है, लेकिन सूत्रों के अनुसार विधानसभा चुनाव में धाकड़ मतदाताओं का अधिकांश वोट भाजपा उम्मीद्वार प्रहलाद भारती को मिला था, लेकिन इसके बाद भी श्री राठखेड़ा इसलिए जीतने में सफल रहे, क्योंकि यादव मतदाताओं का उनके पक्ष में धु्रवीकरण कराने में ग्वालियर के कांग्रेस नेता और वर्तमान में अपैक्स बैंक के चेयरमैन और केबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त अशोक सिंह यादव का मुख्य हाथ रहा था। मौजूदा राजनैतिक स्थिति में अशोक सिंह कांग्रेस के साथ जुड़े हैं और वह उपचुनाव में सुरेश राठखेड़ा के लिए समस्या उत्पन्न कर सकते हैं। हालांकि पोहरी के पूर्व भाजपा विधायक प्रहलाद भारती भी धाकड़ हैं, लेकिन उन्हें पार्टी का निष्ठावान कार्यकर्ता माना जाता है और उनके द्वारा बगावत किए जाने की आशंका लगभग ना के बराबर है, लेकिन सूत्र बताते हैं कि उपचुनाव में उनकी भूमिका लगभग तटस्थ रहेगी। कांग्रेस के पूर्व कार्यवाहक जिलाध्यक्ष लक्ष्मीनारायण धाकड़ ने कांग्रेस में रहने का फैसला कर लिया है और एक तरह से उन्होंने सुरेश राठखेड़ा के विरूद्ध ताल ठोक दी है। सुरेश राठखेड़ा के लिए दूसरी परेशानी पोहरी के दो बार विधायक रहे हरिबल्लभ शुक्ला खड़ी कर सकते हैं। हरिबल्लभ शुक्ला ने भी कांग्रेस में रहने का निर्णय लिया है और उन्होंने भी सुरेश राठखेड़ा तथा ज्योतिरादित्य सिंधिया के विरूद्ध अभी से मोर्चा संभाल लिया है। पोहरी में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या लगभग 25 हजार है और क्षेत्र में हरिबल्लभ शुक्ला का अच्छा प्रभाव माना जाता है और यह लगभग तय माना जा रहा है कि उपचुनाव में हरिबल्लभ शुक्ला कांग्रेस की ओर से सुरेश राठखेड़ा के विरूद्ध मैदान में उतर सकते हैं। पोहरी के कांग्रेस नेता डॉ. रामदुलारे यादव ने वीडियो बयान जारी कर विधायक सुरेश राठखेड़ा पर मतदाताओं और कांग्रेस कार्यकर्ताओं से पूछे बिना इस्तीफा दिए जाने को मतदाताओं का अपमान बताया है और कहा है कि पोहरी की जनता उन्हें सबक अवश्य सिखाएंगी। 2018 के चुनाव में बसपा उम्मीद्वार कैलाश कुशवाह दूसरे स्थान पर रहे थे और उन्होंने सीमित संसाधनों के बावजूद कांग्रेस उम्मीद्वार सुरेश राठखेड़ा की ईंट से ईंट बजा दी थी। उन्हें भी कमजोर उम्मीद्वार नहीं माना जा सकता। पोहरी विधानसभा क्षेत्र में सुरेश राठखेड़ा का विरोध भी शुरू हो गया है। बैराड़ सहित कई अन्य स्थानों पर उनके पुतले फूंके गए हैं। ऐसे में उपचुनाव में सुरेश राठखेड़ा की राह मुश्किल नजर आती है। यह इसलिए भी क्योंकि उन पर दलबदलू का लेबल लग चुका है और यह माना जा रहा है कि लालच के वशीभूत होकर उन्होंने कांग्रेस विधायक पद से इस्तीफा दिया है। इससे भी कठिन स्थिति पोहरी के इस्तीफा देने वाले विधायक जसवंत जाटव की रहने वाली है। श्री जाटव ने सिंधिया लहर में करैरा से 10 हजार मतों से विजय प्राप्त की थी। उनकी विजय इसलिए आसान रहीं, क्योंकि भाजपा ने उनके मुकाबले बाहरी उम्मीद्वार राजकुमार खटीक को मैदान में उतारा था, जिनके विरूद्ध पार्टी में विद्रोह हो गया था और भाजपा के मजबूत उम्मीद्वार पूर्व विधायक रमेश खटीक उन्हें हराने के लिए चुनाव मैदान में कूद गए थे। ऐसे में दलित मतदाताओं का ध्रुवीकरण जसवंत जाटव के पक्ष में हुआ और वह आसानी से चुनाव जीत गए, लेकिन जीतने के बाद पिछले एक साल में उनकी छवि बहुत खराब हो गई। अहंकार उनके सिर चढ़कर बोलने लगा। आम पार्टी कार्यकर्ता और मतदाता के फोन उन्होंने उठाना बंद कर दिए तथा रेत के अवैध कारोबार में लिप्त होने का भी उन पर आरोप लगा। 2013 में करैरा से जीतीं कांग्रेस उम्मीद्वार शकुन्तला खटीक जितनी अलोकप्रिय नहीं हुईं उससे ज्यादा जसवंत जाटव एक साल के कार्यकाल में हो गए। ट्रांसफर पोस्टिंग में लिप्तता के भी उन पर खूब आरोप लगे। उपचुनाव में जसवंत जाटव भले ही भाजपा या सिंधिया के सहयोग से चुनाव मैदान में उतरें, लेकिन उनकी खराब छवि का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ेगा। उल्टे उन पर दलबदलू होने और लालच के वशीभूत होकर इस्तीफा देने के आरोप अलग से हैं। श्री जाटव यदि भाजपा उम्मीद्वार के रूप में चुनाव मैदान में उतरते हैं तो भाजपा के कई प्रभावशाली उम्मीद्वार पार्टी से नाता तोड़कर उनके खिलाफ चुनाव मैदान में उतर सकते हैं।